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“नीच, पत्थर की आँख वाले काने, लंगड़े दयानन्द पांडे का प्रकरण” सुधेंदु ओझा का जवाब

अबे सुअर लंठ, काणे और लंगड़े दयानन्द सुन!!

तूने लिखा है “कुंठा , जहालत और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है।“ तू यहीं नहीं रुका तूने आगे लिखा है, “कुंठा, जहालत, भाषा की विपन्नता और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है।“

जो लड़का बीए पास करके इतना लिख रहा था, उसे किस बात की कुंठा? भाषा की कैसी विपन्नता?

एक आँख वाले सम-दर्शी कुंठा, जहालत और भाषा की विपन्नता केलिए तू खुद को देख।

सुन जब तू दिल्ली में —— के पैर पूज-पूज कर दिहाड़ी पर प्रूफ-रीडरी कर रहा था तो मैं दिनमान, माया और रविवार में छप रहा था।

तेरी फूटी आँख इन लेखों को न देख सकेगी। उन दिनों के असंख्य लेखों में से दिनमान के दो और माया की एक रिपोर्ट देख ले भाई काणे।

यह वह समय था जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए की पढ़ाई भी कर रहा था।

देख माया में मेरी 1984 की रिपोर्ट और दिनमान में तीसरे नंबर की मेरी लीड रिपोर्ट, व एक अन्य आलेख।

तूने लिखा है “कुंठा , जहालत और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है।“ तू यहीं नहीं रुका तूने आगे लिखा है, “कुंठा, जहालत, भाषा की विपन्नता और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है।“

जो लड़का बीए पास करके इतना लिख रहा था, उसे किस बात की कुंठा? भाषा की कैसी विपन्नता?

हमारे यहाँ अवधी में “काणा” उस फल के लिए भी अभिव्यंजित होता है जिसमें कीड़े पड़ गए हों। तुझ पर यह पूरी तरह लागू होता है। तुझे कीड़े पड़ गए हैं।

अपनी भाषा में प्रतापगढ़-इलाहाबाद की अवधी की मिठास तो है ही दिल्ली, जहां देश की सभी भाषाओं का संगम होता है उसकी तीक्ष्णता भी है, न होती तू बिबिलाता नहीं।

हाँ!!, तो तूने भाषा विपन्नता की बात लिखी है फिर मेरी मर्दानियत पर लिखा है।

आज केवल इन्हीं दोनों बिन्दुओं पर शेष कल लिखूंगा।

भाषा विपन्नता :

पथरीली आँख से दुनिया देखने वाले BC (ईसा-पूर्व) सुन, जब तू माननीय ____ जी के तीसरे पैर की विधिवत उपासना कर के, जलाभिषेक करवा के डेली-वेजिस वाली प्रूफ-रीडरी कर रहा था तो मेरी भाषा विपन्नता को पहचानते हुए शीला झुनझुनवाला जी ने उसे साप्ताहिक हिंदुस्तान के आवरण पर स्थान दिया था (11 से 17 अगस्त 1985)। तभी, प्रयाग शुक्ल जी मेरी भाषा विपन्नता से प्रभावित होकर नवभारत टाइम्स के सम्पूर्ण रविवारीय पृष्ठ पर मुझे छाप रहे थे (28 जुलाई 1985)।

पत्थर की आँखों वाले काणे, कीड़े पड़े, लंगड़े पप्पू को यह सब न दिखाई देगा।

किसी को दिखलवा कर समझ लियो इसीलिए उनके फोटो यहाँ लगा रहा हूँ।

अब बात आती है उसकी जिसके लिए तूने लिखा है :

“वैसे भी सुधेंदु मतलब सुधा और इंदु। सुधेंदु नाम का संधि विच्छेद यही बताता है। तो मर्दानियत का तो वैसे ही सत्यानाश हो जाता है।“

बंदर के हाथ अदरक की गांठ लग जाती है तो वह पंसारी बन ही जाता है, यह स्वाभाविक है।

बाबा तुलसीदास जी ने तेरे जैसे BC दुर्जनों के लिए ही लिखा है :

क्षुद्र नदी बढि चलि तोराई, खल जिमी थोरेहिं धन बौराई।“

प्रूफ-रीडरी से तुझे थोड़ा सा लिखना क्या आया, तूने आकाश की तरफ मूत्र-विसर्जन प्रारम्भ कर दिया, यह सोचे बिना कि उससे तेरी अंतरात्मा तक की प्यास मिट जाएगी।

मेरे कार्यालय के सहयोगी, मेरे पितृवत डॉ शेरजंग गर्ग जी कहा करते थे “ओझा!! जिन रास्तों पर बुद्धिमान व्यक्ति चलते हुए कतराते हैं, बहुधा, मूर्ख उन रास्तों पर सरपट दौड़ पड़ते हैं।“

तू भाषा की अपनी अल्पज्ञता का प्रदर्शन खुद कर रहा है, अपनी मूर्खता का प्रमाणपत्र खुद सब को बाँट रहा है।

यही कारण है कि यह (BC) लिख रहा है, “वैसे भी सुधेंदु मतलब सुधा और इंदु। सुधेंदु नाम का संधि विच्छेद यही बताता है। तो मर्दानियत का तो वैसे ही सत्यानाश हो जाता है।“

वैसे मैं भाषा की सब से निचली पायदान पर उतरना नहीं चाहता पर तेरी वजह से विवश हूँ।

पूछ रहा हूँ, यदि, भाषा तत्व से मेरी मर्दानियत सिद्ध हो जाते है तो क्या तू अपने परिवार से किसी को मेरी रखैल बना देगा। तू, क्या मुझमें सुयोग्य ‘वर’ तलाश रहा है?

BC प्रूफ-रीडर, 70 साल की अवस्था में तुझे महिलाओं के इन-बॉक्स में जाने से फुर्सत मिली होती तो “वैसे भी सुधेंदु मतलब सुधा और इंदु। सुधेंदु नाम का संधि विच्छेद यही बताता है। तो मर्दानियत का तो वैसे ही सत्यानाश हो जाता है।“ इस शब्द के विग्रह और उसके मनमाने उपयोग से अवश्य संकोच करता।

अबे, लंठ-लंपट, तेरे बाकी क्रिया-कलापों का भी विस्तार करूंगा पर सुन BC :

सुधा और इन्दु के संधि विच्छेद से क्या बनता है?

सुधा का मतलब क्या होता है?

सुधा शब्द स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग?

इन्दु शब्द का क्या अर्थ होता है?

इन्दु शब्द स्त्री लिंग है अथवा पुल्लिंग?

तुझ जैसे एक गलीच प्रूफ-रीडर को यह नहीं पता होगा, इस की जानकारी तो भाषा-विपन्न ही जान सकते हैं।

जा, जिस समानान्तर-कोष के ज्ञाता के तीसरे पैर को आह्लादित करता था उसके कोष का संदर्भ ग्रहण कर। मूर्ख।

पढ़ :

सुधा के रूप –

सुधा शब्द रूप

स्त्रीलिंग, ठीक उसी प्रकार से जैसे संधि विच्छेद के बाद तेरे नाम का पहला शब्द स्त्रीलिंग वाला है।

इन्दु के रूप –

विभक्ति एकवचन बहुवचन

प्रथमा इन्दुः इन्दवः

द्वितीया इन्दुम् इन्दून्

तृतीया इन्दुना इन्दुभिः

चतुर्थी इन्दवे इन्दुभ्यः

इन्दु शब्द उकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्द है।

सभी उकारान्त पुल्लिंग संज्ञाओ के रूप इसी प्रकार बनते हैं, जैसे- अणु, इक्षु, ऋतु, गुरु, जन्तु, तन्तु, तरु, दयालु, धातु, प्रभु, पशु, बन्धु, बिन्दु, भानु, मृत्यु, मनु, रिपु, लघु, वायु, विष्णु, वेणु, शम्भु, शत्रु, शिशु, साधु, सिन्धु, हेतु आदि।

सुधेन्दु शब्द के उपरोक्त विग्रह से यदि संतुष्ट न हो तो मेरी मर्दानियत को जाँचने केलिए घर से किसी को भेजना।

किसी की वाल पर मुझे यह उक्ति बहुत बढ़िया लगी जिसे मैं नीचे उद्धरित कर रहा हूँ। आशा है यह तूने नहीं लिखी होगी :

“11.05.2022

फेसबुक पर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो खुद को जज समझते हैं। इन जज लोगों का बाकायदा एक गिरोह है । लोगों के दिल मिलते हैं , इन के तार मिलते हैं । दिल-दिमाग से महरूम इस गिरोह के लोगों की एक ही खासियत है कि वह पहले फ़ैसला लिख लेते हैं फिर सुनवाई शुरू करते हैं । फिर इस फैसले की सारे जज मिल कर एक सुर में तारीफ़ शुरू करते हैं । खासियत यह भी कि इन सभी जजों के फ़ैसले भी एक ही जैसे होते हैं ।“

जून 2022 में तू क्या लिखता है :

“कुंठा, जहालत और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है।“

अबे धृतराष्ट्र के छोटे भाई, काणे लंपट, उपरोक्त पंक्ति लिखते हुए क्या तू जज नहीं बन गया है? क्या लिखा है तूने, यह याद नहीं रहता? मैंने कौन सी तेरी बेटी (वह तो जिस दलित आशिक के साथ भागने वाली थी उसके तूने किन परिस्थितियों में हाथ पीले किए वह दुनिया जानती है।) छेड़ दी थी बे? कि जो मुझे हासिल नहीं हुई तो मुझे कुंठा हो जाएगी?

मेरी जहालत का पहला नमूना देख :

1

कि मैंने यूपीएससी क्वालिफाइ करने के बाद इंटेलिजेंस ब्यूरो का असिस्टेंट इंटेलिजेन्स ऑफिसर पद का 8 मई 1986 को दिया गया ऑफर अस्वीकार कर दिया। अगर वहाँ सेवारत होता तो एसएसपी या डीआईजी पद से सेवा-निवृत्त होता।

मेरी जहालत का दूसरा नमूना देख :

2

कि मैंने स्वर्गीय प्रभाष जोशी जी द्वारा दिया गया जनसत्ता का एप्वाइंटमेंट जो कि 27 अप्रैल 1987 का है उसे भी अस्वीकार कर दिया। यह ऑफर उन्होंने मुझे 3 इंक्रीमेंट बढ़ा के दिया था कि “तुम हालांकि 1987 में आ रहे हो पर मैं मानता हूँ कि तुम जनसत्ता से 1984 से जुड़े हुए हो।“

मेरे द्वारा इस पद को अस्वीकार किए जाने के बाद वरिष्ठ पत्रकार श्री अनंत मित्तल (पति श्रीमती इरा झा) के बड़े भाई श्री अखिल मित्तल जो कि आकाशवाणी के प्रसिद्ध उद्घोषक/समाचार वाचक थे ने मुझ से संपर्क करके पूछा था कि क्या मैं वाकई जनसत्ता नहीं ज्वाइन करूंगा? यदि ऐसा है तो शायद अनंत जो कि नवभारत टाइम्स जयपुर में थे वे इस पद केलिए प्रयास करें।

अबे सुअर लंठ, काणे, लंगड़े, लम्पट BC (ईसा-पूर्व) माया-दायाँ-बायाँनन्द सुन!!, बता तू इस समय क्या कर रहा था। मुझ से डींग हांक रहा था न कि “जनसत्ता में तो मुझे भी ज्वाइन करना था पर मैं नखलऊ चला आया था।“

मेरी जहालत का तीसरा नमूना देख :

3

27 अप्रैल 1988, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया से प्रोबेशनरी ऑफिसर का एप्वाइंटमेंट ऑफर, इसे भी मैंने अस्वीकार कर दिया था।

अब तो तू कन्विंस हो गया होगा कि मैं वाकई जहालत का चलता-फिरता नमूना हूँ।

चौथी, पाँचवीं, छठी जहालतें भी हैं मेरी। मैंने साहित्य अकादेमी नई दिल्ली में सब परीक्षा/साक्षात्कार क्वालिफाइ करने के बाद हिन्दी अधिकारी का पद भी अस्वीकार कर दिया था।

मुझे “शिखर-वार्ता” पाक्षिक पत्रिका का दिल्ली कार्यालय प्रमुख आदरणीय श्री विष्णु शंकर राजौरिया जी ने 1985 में नियुक्त किया था। तब मेरा वेतन 3000 रुपये प्रतिमाह था। मैं, उज्जैन से कॉंग्रेस, सेवादल के तत्कालीन सांसद श्री सत्यनारायण पँवार को आबंटित 200, नॉर्थ एवन्यू के फ्लैट में बैठा करता था।

श्री विष्णु शंकर राजौरिया जी, स्वर्गीय अर्जुन सिंह जी के दायें हाथ थे। वे दीर्घायु हैं, जीवित हैं और भोपाल के Career University के मालिक हैं।

एक वर्ष कार्य करने के बाद जहालत दिखाते हुए मैंने उस पत्रिका से भी स्वेच्छा से त्यागपत्र दे दिया था।

मेरी और जहालत सुन!

आकाशवाणी की कठोरतम परीक्षाओं को पास करने के बाद से मैं 1986 से 2000 तक आकाशवाणी हिन्दी समाचार में सम्पादन और वाचन का कार्य भी करता रहा, जिससे वर्ष 2000 में मैं स्वेच्छा से अलग हुआ।

इतने के बाद भी मैं बहुत चापलूस हूँ। क्योंकि मुझे तू अपनी बेटी का हाथ पकड़ा देता इसीलिए मुझे तेरी चापलूसी करनी पड़ती। मैं तुझे बार-बार फोन करता था, तेरी बहुत प्रशंसा किया करता था, तुझे अपने घर खाने पर बुलाया करता था।

अबे नीच, महाबाभन सुन जिसे तू चापलूसी समझता है वह सम्पन्न घरों की विनम्रता है जो सामने देखते हुए भी अंधे को अंधा या काणे को काणा नहीं कहते। तू तो महाबाभन है जानता ही होगा ‘अथीथ’, भिखारी को खाना खिलाना मानवता की पूजा है।

अबे सुअर लंठ, काणे, लंगड़े, लम्पट BC (ईसा-पूर्व) माया-दायाँ-बायाँनन्द सुन!!

आज इतना ही झेल…..

कल तेरी उस पोस्ट का जिक्र रहेगा जिसमें तूने दावा किया था कि इस उम्र में मैं मांस-मछली खाता हूँ, महिलाओं से संसर्ग बनाने में सक्षम हूँ इसके अतिरिक्त समय और स्थान शेष रहेगा तो तथाकथित तंजानिया की लेखिका से देर रात-रात तक की हवस भरी बातचीत और तुझे महानीच कहे जाने का प्रकरण रहेगा…..

मेरे इस आलेख में वर्तनी दोष निकालता रह….

आशा है अब तुझे मेरी जहालत और मेरी भाषायी विपन्नता का प्रमाण मिल गया होगा।

लम्बी कहानी के बाद सोचा था कि मायानंद प्रकरण पर आगे लिखूंगा क्योंकि असली दायाँनन्द/मायानंद मैदान में उतर आया है।

वह मूर्ख बात-बात में कह रहा है कि आलेख का “मायानंद” वही है। पर फिर खंडन करके कहता है कि वह आलेख वाला मायानंद नहीं है क्योंकि वह अर्दली नहीं है, और जाने क्या-क्या।

लगता है वह मेरे जेंडर को लेकर भी भ्रमित है, लिख रहा है कि दो स्त्रियों के नाम वाला है, तो कैसा होगा। अब कैसे लिखूं, यह तो संसर्ग के बाद ही स्पष्ट होगा।

उसे मेरे फोटो पर भी आपत्ति है। उसे लगता है वह हिंदी का प्रेमचंद है उसके अलावा कोई लिख ही नहीं सकता।

हमारे अवध में तीन शब्दों का बहु उपयोग होता है :

1

बाभन-महाबाभन

2

अतिथि-अथीत

3

गुरु-महागुरू

अन्य प्रदेश के हिंदी के जानकारों केलिए “महा” का प्रिफिक्स शायद कंफ्यूसिंग सा हो। हमारे यहां अवधी में बाभन का अर्थ ब्राह्मण और महाबाभन का अर्थ हेय ब्राह्मण है।

ठीक ऐसे ही अतिथि का अर्थ मेहमान तो अथीत का अर्थ भिखारी से लिया जाता है।

गुरु तो शिक्षक पर महागुरु धूर्त समझा जाता है।

मायानंद के बारे में लिखा ही था कि उसका बाप महाबाभन और अथीत था। बेटा महागुरु बन रहा है।

मायानंद की एक आंख पत्थर की लगी है, पैर टूटा है भचक के चलता है दूसरों के फोटो से रश्क ही कर सकता है, क्या कहा जाय।

मायानंद का कहना है, मुझे लिखना नहीं आता, ठीक कहता है। मुझे लिखना नहीं आता इसीलिए वह मेरी लिखी हर बात समझ गया है।

मायानंद अपने लेखन का बयान करता है। अरे जब अखबार की नौकरी की है तो लिखना तो पड़ेगा ही। नहीं तो संस्थान डैश पर लात मार बाहर निकाल देता।

जिस अखबार की कमाई से इसका घर चला उसे भी नहीं बख्शा।

नौकरी हटने के बाद भी इसके आचरण के चलते इसकी ग्रेच्युटी को वर्षों तक रोक लिया गया था। यह कोर्ट कचहरी दौड़ रहा था। भला हो एक महिला IRS का जिसने फोन कर के इसकी ग्रेच्युटी दिलवाई। इस कृतघ्न ने उस महिला अधिकारी को धन्यवाद तक नहीं कहा।

खैर, वह कहता है कि मैंने उसे खाने पे बुलाया था…और भी बहुत बातें उसका क्रमवार उत्तर तैयार करना था।