
लघुकथा
जाल में मछली
शाम को दफ्तर से निकलने में आज फिर देर हो गई। घर तक पहुंचने में घंटा भर और लग जाना था। वह पैदल बस—स्टॉपेज की ओर बढ़ रही थी कि भूख सताने लगी। पर क्या खाए वह? विवशता में खाने की इच्छाओं तक का दमन करना पड़ रहा था। सामाजिक बंधनों में ऐसी फंस गई थी जैसे किसी मछेरे के जाल में मछली।
उसके कदम कुछ तेज हुए। कब तक जाल में फंसी रहेगी? उसे तोड़ना या फिर अंतत: मरना होगा। मन में विश्वास और दृढ़ता की शक्ति ने उछाल मारा। भूख मिटाने के लिए वह सामने के होटल में जा पहुंची। वहां कुर्सी पर बैठकर वह मेज पर रखे मेनू को इत्मीनान से पढ़ने लगी। दो भागों में बंटी निरामिष और सामिष व्यंजनों की लम्बी सूची थी।
बैरे के आर्डर लेने पर उसने सींख कबाब, चिकन टिक्का, एक बिरयानी और सलाद लाने को कहा। इसी बीच कई आंखों की चुभन उसने अपनी देह पर महसूस की पर इसकी आदत तो युवावस्था में कदम रखते ही पड़ गई थी। उसने अपनी देह झटकी। उसकी इच्छाशक्ति, उसका आत्मविश्वास उसके साथ थे। दकियानुसी सामाजिक बंधनों को समाज में रह रहे लोग नहीं तोड़ेंगे तो कौन तोड़ेगा?
अपना मनपसंद भोजन कर आज उसे बहुत दिनों बाद एक तृप्ति का अहसास हुआ।
‘अब उसे बाहर का खाना नहीं खाना है क्योंकि विधवा का प्याज, लहसुन समेत मसालेदार भोजन करना निकृष्ट है’, सास की बार—बार की इस हिदायत को उसने जूठी थाली के नीचे दबाया, बिल चुकाया और बैरे को टिप देकर होटल के बाहर आ गई।

-रतन चंद ‘रत्नेश
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